Wednesday, May 22, 2019

भारत प्रशासित कश्मीर में घटी घटनाएं

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी कहते हैं, "दरअसल चुनाव खत्म होने के बाद चुनाव आयोग मामले पिक्चर से बाहर हो जाता है और राज्य की पुलिस मामले की जांच करती है. वो ठीक से जांच करती है या नहीं ये एक बात है. दूसरी बात कई सौ आपराधिक मामलों में चुनाव आयोग के लिए हर केस को फॉलो करना संभव नहीं हो पाता."
गोपालास्वामी के मुताबिक चुनाव खत्म होने के बाद भी चुनाव आयोग कुछ प्रमुख मामलों को फॉलो कर सकता है. साथ ही आयोग ये भी कह सकता है कि बिना उससे विचार-विमर्श किए इन मामलों को वापस न लिए जाए क्योंकि आयोग के कहने पर भी इन आपराधिक मामलों की शुरुआत हुई थी.
चुनाव की घोषणा के साथ ही आचार संहिता लागू हो जाती है. आचार संहिता यानि चुनाव में पार्टियों और उम्मीदवार किस तरह व्यवहार करेंगे.
चिदंबरम उन दो हमलों की ओर इशारा कर रहे थे, जिन्हें साल 2016 में अंजाम दिया गया था और जिनमें सेना के ठिकानों को निशाना बनाया गया था.
राजनीतिक दलों से बातचीत और सहमति से ही आचार संहिता से जुड़ा दस्तावेज़ तैयार हुआ था और इसके इतिहास की शुरुआत 1960 से केरल के विधानसभा चुनाव से हुई जहां पार्टियों और उम्मीदवारों ने तय किया कि वो किन नियमों का पालन करेंगे.
चुनावी आचार संहिता किसी कानून का हिस्सा नहीं है हालांकि आदर्श आचार संहिता के कुछ प्रावधान आईपीसी की धारों के आधार पर भी लागू करवाए जाते हैं.
रिपोर्टों के मुताबिक 1962 के आम चुनाव के बाद 1967 के लोक सभा और विधानसभा चुनावों में भी आचार संहिता का पालन हुआ और बाद में उसमें एक के बाद एक बातें जोड़ी गईं.
चुनावी सुधार पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि आदर्श आचार संहिता को जनप्रतिनिधित्व कानून का हिस्सा बना दिया जाए लेकिन पूर्व चुनाव आयुक्त इससे सहमत नहीं.
उनका मानना है कि अगर इसे कानून का हिस्सा बना दिया गया तो मामले अदालत में चले जाएंगे और वो सालों तक खिंच जाएंगे जो कि सही नहीं है.
तो फिर क्या किया जाए जिससे उम्मीदवारों, पार्टियों में ये भावना जगे ताकि वो आदर्श आचार संहिता का पालन करें.
एक पूर्व चुनाव आयुक्त के मुताबिक ज़रूरी है कि चुनाव आयोग एक या दो महत्वपूर्ण नेताओं के खिलाफ़ कड़ी कार्रवाई करे ताकि ये संदेश हर जगह जाए कि आदर्श आचार संहिता को गंभीरता से लेना ज़रूरी है.
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति कहते हैं, "हमारी कुछ सीमाएं हैं. हमने कई बदलाव प्रस्तावित किए हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक दल की उसमें रुचि नहीं. किसी राजनीतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में चुनाव सुधार तक का ज़िक्र नहीं किया है. आप पूरी तरह से चुनाव आयोग को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते क्योंकि उसकी सीमाएं हैं."
दावाः 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से भारत ने एक भी बड़े 'आतंकवादी' हमले नहीं देखे हैं.
हाल ही में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह दावा किया था कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश ने कोई भी बड़े 'आतंकवादी' हमले नहीं देखे हैं.
उन्होंने कहा था, "2014 के बाद से भारत में कोई भी बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ. सीमा पर निश्चित रूप से कुछ गड़बड़ियां ज़रूर हुई हैं, लेकिन भारतीय सेना ने उनके अंदर आने की कोशिशों को सीमा पर ही ख़त्म कर दिया."
मंत्री के इस बयान पर काफ़ी विवाद हुआ और बहस इस बात पर छिड़ गई कि आख़िर "बड़े" आतंकवादी हमले की परिभाषा क्या होती है.
हकीकतः आधिकारिक और स्वतंत्र आंकड़ें बताते हैं कि 2014 के बाद से देश के भीतर कई चरमपंथी समूहों ने घातक हमलों को अंजाम दिया है. सरकारी दस्तावेज खुद इनमें से कम से कम दो को "बड़ा हमला" मानती है.
कृष्णमूर्ति कहते हैं, "चुनाव आयोग के पास उम्मीदवार को अयोग्य ठहराने की, उस पर फाइन करने का अधिकार होना चाहिए लेकिन राजनीतिक दल इस पर बहुत ध्यान नहीं देते."
चुनाव आयोग के पूर्व कानूनी सलाहकार एसके मेंदीरत्ता भी मानते हैं कि राजनीतिक दल चुनावी सुधार को लेकर कुछ नहीं करने वाले.
वो कहते हैं, "राजनीतिक दलों के खर्चे की कोई सीमा नहीं है, उम्मीदवार के खर्च पर सीमा है. एक राजनीतिक दल 500 करोड़ खर्च करे और दूसरी करे 50 करोड़ तो फ़र्क तो पड़ता है. वो चुनावी सुधार होगा.चुनावी बांड्स पर पारदर्शिता आ जाए तो वो एक और चुनावी सुधार होगा."
हमने चुनाव आयुक्त के समक्ष आचार संहिता के विषय पर साक्षात्कार का निवेदन भेजा हुआ है. जवाब का इंतज़ार है.

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